फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद
जान पहचान से ही क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद
जिन के हम मुन्तज़िर रहे उनको
मिल गये और हमसफ़र शायद
अजनबीयत की धुंध छंट जाए
चमक उठे तेरी नज़र शायद
जिंदगी भर लहू रुलाएगी
यादे -याराने-बेख़बर शायद
जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं "फ़राज़"
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद
" अहमद फ़राज़ साहब"
हम कभी मिल सकें मगर शायद
जान पहचान से ही क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद
जिन के हम मुन्तज़िर रहे उनको
मिल गये और हमसफ़र शायद
अजनबीयत की धुंध छंट जाए
चमक उठे तेरी नज़र शायद
जिंदगी भर लहू रुलाएगी
यादे -याराने-बेख़बर शायद
जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं "फ़राज़"
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद
" अहमद फ़राज़ साहब"
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