Wednesday, 14 November 2018

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जान पहचान से ही क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद

जिन के हम मुन्तज़िर रहे उनको
मिल गये और हमसफ़र शायद

अजनबीयत की धुंध छंट जाए
चमक उठे तेरी नज़र शायद

जिंदगी भर लहू रुलाएगी
यादे -याराने-बेख़बर शायद

जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं "फ़राज़"
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद

" अहमद फ़राज़ साहब"

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